Saturday, December 6, 2008

आडी तानें सीधी तानें

आडी तानें सीधी तानें - हरीश भादानी
हरीश भादानी जी का परिचय यहाँ देखें।
प्रकाशक: कवि प्रकाशन, डी-2, मुरलीधर नगर, बीकानेर - 334004
संस्करण : 2006 मूल्य: 120/- ISBN 81-86436-41-3
ई-प्रकाशक:
ई-हिन्दी साहित्य प्रकाशन,
एफ.डी.-453, साल्टलेक सिटी,
कोलकाता-700106 मो.-09831082737
Email: E-Hindi Sahitya Prakashan
[BIN Code: INHN 01-330001-033-1]
संपर्क :हरीश भादानी, छबीली घाटी, बीकानेर दूरभाष : 2530998
[Script: AADI TANE SEEDHI TANE (Poem) By Harish Bhadani]

सन्नाटे के शिलाखंड पर

सन्नाटे के शिलाखंड पर
हरीश भादानी
भादनी जी का पूरा परिचय यहाँ पर देखें।
प्रकाशक: धरती प्रकाशन, गंगाशहर, बीकानेर -334004 (राजस्थान)
संस्करण : प्रथम संस्करणः 1982 मूल्यः 22/-
ई-प्रकाशक:
ई-हिन्दी साहित्य प्रकाशन
एफ.डी.-453, साल्टलेक सिटी,
कोलकाता-700106 मो.-09831082737
E-Mail to BiN Code
[BiN Code: INHN 01-330001-033-2]
संपर्क : हरीश भादानी, छबीली घाटी, बीकानेर दूरभाष : 2530998
[Script: Sannate ka sheelakhand par (Poem) By Harish Bhadani]

सुलगते पिण्ड


हरीश भादानी

सम्पर्क:
छबीली घाटी, बीकानेर (राजस्थान), दूरभाष: 2530998
[Script Code: Sulagate Pind (Poem) By Harish Bhadani]
ई-प्रकाशकः
ई-हिन्दी साहित्य प्रकाशन
एफ.डी.-453, साल्टलेक सिटी, कोलकाता-700106
Mobile:09831082737 Email: ehindisahitya@gmail-com
[EScrip Code: INHN 01-330001-033-7]


अभी-अभी
जगा हुआ निर्याम !
सृष्टि के
प्रारम्भ को प्रारुपति
विस्तारती अरुणाइयाँ अछोरों तक
और यह अभी अभी
सधा हुआ आयाम
शिखरों को परसने जा रहा है-
साक्षी है सूरजमुखी !
यह सब
बड़ी प्रतीक्षाबाद
अभी-अभी जन्मा हुआ परिणाम !
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दृष्टियों !
भागते विस्तार की आहट सुनो,
गंध सूँघों,
गड़ी ही रहो
मर्मस्थली में,
पलक झपते ही
कहीं अलगा न जाए,
दृष्टियों !
साँचे ढले दर्पण
तुम्हारे सामने तैरा करेंगे
ठहरना मत,
उलझना मत
आकृतियों के जड़ाऊ व्यूह
सारे लाँघ जाना
सुनो
दर्पण पारदर्शी नहीं होते कभी भी !
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सामने
आकांक्षा की झील की
हिलकती पर्त
भूरी दूरियों के थूथनों पर ढरकी टिकी हैं
और मेरी
सव्य साची-लक्ष-गन्धें
परसने को
सघी ही सघी जा रही हैं
और मेरी
आस्था की रास
पंथ-शोधी-दृष्टियों के सारथी के हाथ
बस, अभी क्षण बाद
मेरी यात्राओं का साक्षी
यह संजयी-सूरज
दिशाओं में कुम-कुम उड़ा कर सूचना देगा-
आकांक्षा में
गन्धों के विलय की !
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पहर पर पहर भर
संघर्ष के पश्चात
अफीमची अँधेरे की अँगुलियों से फिसल
उझके हुए
सूरज सरीखे हम
स्वरानी चोंच-कूहें
चिटखिटाती
पंखुरियों की पखावज
एक झीनी सी सरोदी गूँज भँवरों की-
हमारे
आगमन की सूचनाएँ
धूप पोरों से पखारी
तैरती ही जा रही
विस्तार के वातावरण में
दृष्टि बाँधे दूर अन्तों से
पड़ावों को अदेखा कर
उड़ी ही उड़ी जा रही
हमारी ये साँसें-क्रियाएँ !
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पूरनिया
समुंदर के मुहाने
एक नन्हें शिशु को जन्म देने
जिजीविषाएँ ?
टीसती हैं रात भर तो टीस लेने दो उन्हें,
गुम-सुम
टहनियों की गुँडेरों से उठे
वन पाखियों के स्वर सरीखी साँस
जो बुनने लगे
झीनी हवा का एक कुर्त्ता
एक टोपी बुनने दो उसे
वीथियाँ धोती
खुले आँचल पिलाती दूध,
धूप सी आँखें
पसरती जायँ आगे तो पसरने दो उन्हें-
कुआँरे बाप सा भीरू अँधेरा
कहीं सूरजमूखी सान्दर्भ की हत्या न कर दे !
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पूछो नहीं हमसे खामोशियों का अर्थ !
बारूद गीली है
अभी आवाज़ की
फिर भी
बिछाए जा रहे हैं-
तलहटी से कंगूसों तक
कैसी बनेगी सूख जाने पर-
पूछो नहीं हमसे
साँसों से
हवाते जा रहे हैं धूप को
कि यह हमारी
अँगुलियाँ उठी दिशा ले ले
क्या बनेगा रंग
रगड़ खाने पर
पूछो नहीं हमसे
झुर-मुटों से
उलझते तन के बहुत गहरे में
छिपा रक्खा हैं
एक दुख, बहुत कुछ-एक धुन,
किसी साफ आकाश के नीचे
धरती के खुले आँगन रख लेने से
क्या बनेगा रूप
यह पूछो नहीं हमसे !
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ओ हमारी चेतनाओं !
प्रतीक्षा की उमर को
आखिरी क्षण दो,
धैर्य्य का पर्वत दरारो,
कि भीतर पक गया है भ्रूण
हरकतें झेली नहीं जाती
संघर्षती हर साँस
भींग कर निकलनी है पसीने से;
ओ, हमारी चेतनाओ !
तुम्हीं से तो बँधा है वह
शिराएँ तोड़ दो
एक केवल एक क्षण
उसे विस्फूटने दो
कि और अब झुलसे नहीं हमारा मन
और अब तोड़े नहीं हमारी हड्डियाँ
ओ हमारी चेतनाओं !
एक एकांकी इकाई की तरह
हमारी राख न हो
सुनो ! इसी क्षण
विस्फोटो हमारे भ्रूण को
कि सुलग जाए यह वातावरण
जो हमें घेरे खड़ा है
ओ हमारी चेतनाओं !
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एक जो चादर हमें दे दी गई है
किसी भी एक कोने से
इसकी सीवन उधेड़ें
देखें कि.....
कितने जोड़
कैसे सून के धागे
कि यह हमारी नग्नताओं को
सम्पूर्णता के साथ
ढाँपती भी है या नही;
एक यह पोथी युग-बोध की
जो हमें पढ़ने-समझने
और जीने को दे दी गई है
देखें कि-
इसके शब्द कितने जिन्दा हैं,
कितने अपाहिज हैं
और कितनों पर ताबूत के ढक्कन लगे हैं
और जितने बोलते हैं
इनका अर्थ
हमारे शब्द-कोष में है या नहीं
नहीं है तो ?
आओ, अस्वीकारें हम इन्हें सम्पूर्णता के साथ
जीने के लिये तो
सिर्फ धरती ही बहुत है !
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नींद आ जाती बुरा होता
रात में
दिन के मुखौटे उतरते हैं,
गूंगे अँधेरे की गवाही में
बहुत से खूबसूरत तन
बेहया मन खोलते हैं
जोड़ते तलपट किए व्यापार का,
यह सभी कुछ
अनपढ़ा रहता बुरा होता !
सुविधा से काटी हुई
एक मोटी छाँह पहने,
निपटाओंगे
दुलराते सहजा, अबोधा धूप को,
झरोखो से
मंचों से अक्षर पढ़ाते
इस तरह के लोग
अनदिखे रहते बुरा होता !
घास के आकाश नीचे
चूल्हों के मुहानों से
नमकीन गंगाएँ निकलती हैं हमेशा
पेट की नन्हीं मटकियों पर
पैबन्द वाले टाट से मनाई घाटियों में
गूँजते हैं रोटियों के गीत
ये गूँजें अनसुनी रहती बुरा होता !
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ये जो सपने हैं-
सुबह की सीटियों के बाद
क्या अस्तित्व है इनका ?
शहरी नींद में
बेहोश मन के पास
रात की तिरती हुई यह झील
अनकहीं
कहती रही सी
तरलाई-फैली हुई आँखें;
घोंसलों के अधखुले झरोखों तक
कड़वा धुँआ आने के बाद
क्या अस्तित्व है इनका ?
संकरी गली से दूर
गहगहाते से उषाई रंग
महमहाती गंध
डोलते सारंग
आकाश की उल्टी अँगीठी से-
हवाएं सोख,
बिछती धूप से
कुढते धुंधले तक
क्या अस्तित्व सपनों का ?
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रात भर
नींद नहीं आई !
तन की सूजन
मन पर के कुछ घाव खरोंचे-
सिरहाने बैठी ख़ामोशी
गरम-गरम फोड़ो से धोती रही
रात भर-
आँखों के आगे खिच-खिचते
कई रंगों,
रेखाओं के अतीत पर
धुनी अँधेरा रहा फिराता
एक रंग की बुरश
रात भर-
और देखते ही रहते-
एक थकन की लम्बी उम्र गुजरती
बैठे-बैठे इन्तजारते
पर बहुत पुराने परिचित जैसी,
द्वार-द्वार आहटती ?
आंगन-आंगन, गली खोजती
एक सुबह आगई बुलाने
कह दिया-
अनींदे ही चलने को !
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घाव फिर दुखने लगा है
विवशताओं से
बांधा इसे कसकर
भूलकर दागी अस्तित्व को
चलने लगे
खोये रहे
अधोरी अभावो के जुलूस में,
पर भीड़ से टूटी-जुड़ी
हर इकाई
सिर्फ अपने ही लिये
कुछ इस तरह झूझी
कुछ इस तरह टकरी कि
चोटिल हो गया
फिर घाव,
सारी विवशताओं को भिगोकर
बदबूदार
रेसा फिर रिसने लगा है !
घाव फिर दुखने लगा है !
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पहले
भोर से उजड़ी अँगीठी को बसाने
साँझ का गुबार ओढ़े
हूँकती हुचकियों को दबाएँ
पहले
फूटे पेटवालों, के मुँह में भरें.....
कुछ धीरज का मसाला
ठंडे लिजलिजे शरीरों पर
सौ बार मोटी थपकियां लेवे
मम्मियों जैसा सुलाएँ
भूख
जोड़ बैठी है कचहरी
नींद पर हथोड़ा पीटनी
तकाज़े कर रही है-
आंगन में जितने पड़े हम-रूप-साहूकार !
सबको
दो समय की किश्त तो देनी पड़ेगी
कर्जा चुकाने
सांसों की रोकड़ मिलाने बाद-
बचेगा क्या?
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धुरी नहीं
धरती घुमा करती है भाई !!!
एक घड़ी का बादल
एक बहाना भर है,
आधे क्षण की सांझ
अधूरी छलना
अँधियारा तो दृष्टि दोष है, भाई !
और सुबह भी
नींद जगाने का सपना है
एक बार जलकर
सूरज की ईधन बुझा नहीं करती है भाई !
छाया
मिलती है केवल झुरमुट के नीचे
फिसलन होती है
केवल काई पर
मौसम खुरच-खुरच जाते हैं तनको
गर्म मुहानों से आती
सासों की अपनी भी क्षमता होती है
मन के संकल्पित पठार पर
कोई असर नहीं होता है भाई !
धुरी नहीं
धरती घुमा करती है भाई !
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धरती पर
एक और धरती,
आकाश पर
एक और आकाश,
यह राख का रंग, यह नुचा हुआ चेहरा
उफ ! कितना घिनौना रूप है !
और एक भीड़ है
जो इन दोनों को
और अपने बहुत कुछ को छोड़
एक दूसरी धरती के लिए
एक दूसरे आकाश के लिए
लाशें लाँघती,
खून के चकत्तों पर
आधे पाँव रखती है-
भागती है मगर
मरे सिपाहियों की जेबों में
बिस्कुट खोजना नहीं भूलती,
बदबू फेंकती ढ़ेरियों को कुरेद
जली रोटियों के टुकड़ो की खोज
नहीं छोड़ती,
आज धरती की हथेली में धान नहीं,
आकाश के कटोरे में दूध नहीं,
पानी नहीं, धूप नहीं,
नीचे जले बुझे कोयले हैं,
ऊपर धुआ है, सिर्फ धुआ
यह धरती यह आकाश
दोनो अपरिचित, कभी न देखे से !
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एक हम
और हमारा दर्द दोनों साथ जन्में !
जन्म से बीमार,
गूंगे दर्द को थामे-सम्हाले
सूर्य के मेहमान
बनने को चले हम,
धूप से सेका, हवाएँ की
मगर इस दर्द का नासूर बढ़ता ही गया,
और पीप रिसता ही गया-
हर मोड़, चौराहे-दुराहे पर आवाज़ दी
हमने हर एक अपने को,
बन्द ढ़्योढ़ियों पर दस्तकें दी कि-
जन्म से प्यासे-अबोले
हमारे जुड़वाँ-दर्द को
कोई दी बूँद परनी दे,
दुखते हुए नासूर धो दे,
यह सही है-
हमारी साँस कड़वी है,
हमारे पास केवल एक गटरी है,
जिसमें हमारे मेजबान-
सूरज के लिये सपने बन्धे हैं,
और इनके साथ
दूरियों के छोर छूने जा रहे हैं,
ऊँचे झरोखो वाले
अपनों के लिये हमारे पास कुद भी तो नहीं है
एक क्षण भर ही
दुखेगा मन-
आँखे डबडबायेंगी,
दूरियों के पार
हमारे ही लिये प्रतीक्षित
सूरज से मिलते समस कि-
दागी रह गया हमारा दर्द !
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हमारे ही इरादे
हमें बदनाम करने को उतारू हैं?
मौसम की खुशामद पर
रीझा हुआ मन
यादों के बुलावे
भेजना चाहता तुम्हें
पर तुम्हारी सौत-
भूख के जाये ये बनजारे इरादे
सपनों का तमाशा
बाज़ार में दिखाने को उतारू हैं !
अभावों के नकेले
ये हमारे पानीदार सपने-
नंगापन छिपाने धरती गोदते हैं,
बिफरते हैं
और तमाशे देख कर जीती हुई
बेशर्म दुनियाँ
सिक्के फेंक
ओछी चोटें मारती है
खून तो आये कहाँ से?
साँस के उगलते हुए
बदरंग झागों से भीगी
हमारी प्यास
बेहोश होना चाहती है
किन्तु तेंषरते इरादे
सब्र की सारी बुर्जियाँ तोड़
बगावत करने को उतारू हैं !
अब तुम कहो,
अटारी पर बैठी भरम की अप्सराओ !
मौसम के हाँके हुए
मन के लिये तुमको
तुम्हारी याद को कैसे बुलायें-?
कहाँ से राजवंशी संस्कारों को चुरायें-?
कौन से आंगन बिठायें-?
खूबसूरत बहानों में
बदल जाने
हम अपने इन इरादों को कैसे मनायें-?
क्या करें-
जो ये इरादे जन्म से गँवारू हैं !
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आज तक जितना जिये हैं
बदनाम होकर ही जिये हैं !
इन बड़ी हवेलियों वाले बुर्जूगा बूढ़े
अपनी स्वर्ग यात्रा से पहले
हमें दो-चार थेगड़े ही दे गये होते
तो ढाँप लेते हम स्वयं को,
फटी चादर लिये कब तक छिपे रहते ?
आ गये-
नंगे अभावों का हुज़ूम लेकर
खूबसूरत दुनियाँ को सड़क पर;
हमारे पास क्या नहीं है-
सपने हैं,
धरती-सा कलेजा है,
इस आसमान से कहीं अच्छा मन है,
ऐसी असलियत में
आ गये हम तो क्या कयामत हो गई ?
रेशमी गिलाफ पर बीमार
लोगों की अँगुलियाँ
हम पर उठी हैं-
बारादरी से झांकें जा रहे
चेहरों पर सलवटें पड़ी हैं
और ताने भोंकते हैं !
सौंगन्ध है हमको हमारी सांस की
जो दूरियों तक जीना चाहती है,
ऊँचाइयों को-
जो बौना बनाना चाहती है,
गुम्बदों को
चूल्हों की चिमनियाँ बनाना चाहती है,
जो नकाबों को उलटना चाहती है,
बेडोलपन को
जो तरासा चाहती है
सौगन्ध ऐसी साथ की-
पहले से अधिक
बदनाम होकर भी जियेंगे !
दमखम से जियेंगे !!
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जहर पिला देना चाहता हूँ
रातों में बाज़ार लगाती
इन यादों को !
ये यादें-
भोले चरवाहे सपनों पर
जादू-सी चढ़कर बोला करती हैं,
मेरी सृजन चढ़ी हुई
आँखों के आगे
बिना ताल स्वर के
नाचा करती हैं,
पोर-पोर में चुभ जाती है
इतना दर्द दिये जाती हैं,
आसमान गदला जाता है
जिसको धोते-धोते
मेरी सांस-सांस
थकने लगती है,
सौगंध दिलाता हूँ सपनों को
मैं अपनी घरवाली
सती-धूप की
वे केवल मेरे ही होकर
जीना सीखें !
लेकिन
पसरी हुई रात की
रसिया यादें
हर सौगंध तुड़ा देती हैं;
दुखिया मन के जाये सपने
सूरज से अपनाया गाँठे,
छोड़ें नहीं पठारी धरती,
और विरासत-
चूल्हा-चिमनी
पेट बजाती हुई भीड़ को
देखें-भालें,
हाथ उठायें,
नसें तनायें,
ऐसी साधें रहें न आधी
इसीलिये
मैं ज़हर पिला देना चाहता हूँ
रातों में बाज़ार लगाती
इन यादों को !
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ओ मेरे सब अपनों तुमसे
मुझे बग़ावत करनी होगी !
अब तक जीली गई उमर को
मैंने तीखी धूप खिलाई,
सूरज की सौगंध मुझे हैं
मैंने भर-भर प्यास पिलाई,
अब तक जो बादल उभरे हैं,
डरे-डरे से ही उभरे हैं
सब मौसम परदेशी बनकर
मेरी गलियों से ग़ुजरे हैं,
हवा यहाँ इतनी भारी है
साँसे ही ले सकता केवल,
सपनों का जीवन क्या जीना-
सपनों को जनमाना मुश्किल !
ओ मेरे जैसे ही अपनी !
ऐसी सपनों खोर हवा को
मलयानिल का नाम दिया तो
मुझे अदावत करनी होगी !
भूले से बरखा तो आती
पर पानी नमकीन बरसता,
भावों का चातक बेचारा
भरमों को पी-पी कर रहता,
मधुमासों से परिचय कैसा-इनकी छाया भी अनजानी
सरसाँ की फसलों को कैसे-
कहदूँ होती बहुत सुहानी ?
सुना हुआ है, पढ़ा हुआ है-
मौसम तो बदला करते हैं
पर मेरी ड्योढ़ी पर पतझर-
बारह मास रहा करते हैं
ओ मेरे जैसे ही अपनो !
थकी हुई बेहोश रात को बासंती सम्मान दिया तो
मुझे अदावत करनी होगी !
पाले पोसे सब सपनों को
मैंने जिन्दा गाड़ दिया है
हिरनी सी भोली यादों को
तड़पा-तड़पा गार दिया है,
मैं कैसा हूँ, घर कैसा है इसका मुझको ज्ञान नहीं है,
जैसा भी बन पाया
इस पर मौसम का अहसान नहीं है,
फिर भी ज़िन्दा हूँ
इसलिए कि जीता हूँ अंगारे खाकर
बिना रूके चलता जाता हूँ
मैं सूखी मल्हारें गाकर
आ मेरे जैसे ही अपनो
तुमने इस बीमार घड़ी को जो सावन का नाम दिया तो
मुझे अदावत करनी होगी
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सुना है-
इन दिनों सपने हमसे बहुत नाराज़ हैं !
एक अप्सरा-सी गंध ने
शिकायत की हवाओं से कि-
किस तरह फेरे फिरें
नीची गली !
घटाओं की आधी खुली लट नें
मुँह फेर सावन से शिकायत की कि-
किस तरह गरजें-बरसलें उस धरा
जो धूप से तन-मन जली !
लुटी बारात सा हमारा गाँव
और यह आलम !
इसीलिये शायद
सुना है-
इन दिनों परचम हमसे बहुत नाराज़ हैं !
हमारे
साँस के घर के इस ऊपरी आकाश में
इतने झरोखे हैं कि-
धूप के झरने कभी रुकते नहीं
और आँधियों की बाढ़ भी
कभी थकती नहीं, बँधती नहीं,
डॉ हमारे गाँव
सावन भी गहरता है
मगर उदासी-सा
और बिजलियाँ भी कौंध जाती हैं
बिना मौसम
लेकिन हमारी पीठ में,
इसीलिये शायद
सुना है-
इन दिनों सरगम हमसे बहुत नाराज है !
माँ बाप बन
सारे अभाव पोषे जा रहे हैं
दूध पीड़ा का
पिलोये जा रहे हमको,
ये उलाहनों से सभी भाई,
आँसुओं की धारा सी कुआँरी बहन
यह खून का सम्बन्ध
ये नमकीन आशीसें-
जिन्हें हम छोड़ना नहीं चाहते
इसीलिये शायद
सुना है-
इन दिनों सभी अपने हमसे बहुत नाराज हैं !
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सब अपनों पर
मुट्ठी भर-भर
विस्मृतियों की राख फेंकता जाऊँ !
सब अपनों पर
संक्रामक स्याही में
डुबो-डुबो
दूरी की कलम फेरता जाऊँ !
यूँ तो
सब अपनों के
अपनापे का घोल तरल है,
आकर्षक है
पर सब
बँटे सभी के लिये प्रश्न है केवल
उत्तर अभी नहीं जन्मा है,
मौसम बेमौसम की हवा-
हवा की हल्की सी टकराहट-
बदरंग देती है-
अपनापे को घोल
घोल में घुले हुओं की
अलगाती अस्तित्व,
सभी बेरूप
नुकीले
तीखे-तीखे चुभने वाले !
ऐसे सब अपनों पर
मुट्ठी भर-भर
विस्मृतियों की राख उड़ाता जाऊँ !
ऐसे सब अपनों को
उनके बौनेपन की,
कुबड़े हुए अहम् की,
कुँठा की
बदनामी देता जाऊँ !
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मुझसे मत पूछ कि-
अलसाई हुई सुबह कहाँ है ?
मुझसे मत पूछ-
हिनाई हुई शाम कहाँ है ?
मुझसे मत पूछ कि-
साँसों के गरम आगोस में पले
वो जवाँ अरमान कहाँ है?
मुझसे मत पूछ-
मैं वही हूँ या नहीं ?
मुझसे मत पूछ-
तू वही है या नहीं ?
मुझसे मत पूछ-
किसने किसको बदल डाला है ?
किस हवा ने-
चमन का चमन ही झुलस डाला है ?
मुझसे मत पूछ कि-
दर्द बहकता क्यों है ?
कोरों में छिपा
अश्क दहकता क्यों है ?
मुझसे मत पूछ कि-
सपने जो मुर्दा हैं
वे अब तक भी दफ़न क्यों न हुए ?
वे जो अपने हैं,
वे जो जिन्दा हैं-
उन्होंने कफ़न क्यों न दिये ?
मुझसे मन पूछ कि-
सपनों की सजी लाश से उठती हुई
बदबू से-
मैं, तुमको, तुम जैसी ही दुनिया को
क्यों परेशान किये हूँ ?
अपने ही नहीं
किस-किसके गुनाहों का मैं बोझ लिये हूँ ?
मुझसे मत पूछ कि क्या बात है-
कंगनिया कलाई में बन्धा ईमान
फिसल ही गया-
ओ कदम जिसने
मुफ़लिसी के बीयाबनों में
चलने की कसम खाई थी
वो रंगी-रेशम के हिडोले में चलने को
मचल ही गया-
मुझसे मत पूछ कि मुझको
तेरी अदबी पुकारों से,
तेरे बहके हुए कदमों से शिकायत है या नहीं ?
तेरी बदली हुई नज़रों से
तेरे कमज़ोर इरादों से
अदावत है या नहीं ?
मुझसे मत पूछ !
------------------


हम-एक शब्द
जिसके सामने लिखा हो-
व्यंग का तीखा विशेषण-तुम !
इस अधूरे वाक्य को समझने
मन लगाया
आँखें गड़ाकर पढ़ा
फटती पोरों से
अनेक पृष्ठ पल्टे
पीले पड़े कोष के;
फीके पड़े अक्षर
दूसरा ही अर्थ देने लगे,
टीका क्या करें ?
क्यों न इस अधूरे वाक्य को
यहीं पर छोड़ दें ?
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क्यों मुझे आवाज़ देते हो ?
रात पर रीझा हुआ
बहला करे वह कोई और होगा-
मैं तो
ढलती उम्र में जन्मे
इस साँझ के
बीमार बेटे के लिये
कफ़न बुनने में लगा हूँ,
रात का अंधेरा-
अजगर सा अपाहिज
जिस पर कोढ़ से फूटे हुए तारे,
सूनी हवाओं की हिलक से
खड़-खड़ाती पत्तियों-जैसी
दुखती-उखड़ती साँस,
मौत की सियाही-सी फटी-फटी
अंधेरे की अकड़ी हुई यह लाश
मैं जिसे अभी
बस अभी
पूरब में सुलगती
सुर्खियों में झोंक दूँगा,
फिर सुबह की गोद से जन्मी
हवा स्वरायेगी,
बिछेगी खूबसूरत धूप
और मैं-
उजली दिशाओं से बँधी-बँधी
पगडंडियों के साथ
आहटें आंके चलूँगा,
क्यों मुझे आवाज देते हो ?
कमजोर सपनों के झरोखों में
सोया हुआ जीवन जिये-
वह कोई और होगा !
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बूढ़े सूरज की सहचरी
नवेली संध्या ने जाये
कुछ अवैध सपने !
ये सपने
ओट-ओट में पले,
चाँदनी पी-पीकर हो गये सयाने
और एक दिन
अँधियारे की नज़र पड़ गई
नाम-दिशायें पूछी-
ये डर गये विचारे
सतवंती संध्या मां का
नाम लिये चीखे-चिल्लाये !
आधी रात
सन्नाटे ने डसा
और सब कच्ची मौत मर गये;
एक कुलीना मां की
ये लावारिस लाशें
दुर्गन्धायें नहीं हमारी सांसें
मनकी धरती
रहें न घेरे,
अपनों और परायों की खातिर
जी रही हमारी
यायाघर आशाओं, आओ !
इन सपनों को
पूरब की वेदी पर रखदें,
आग लगाएँ
धुँआ हटायें
समिधायें देते हो जायें
और धूप का
गंगाजल छींटें-
आंगन, गली,
सड़क चौराहों !
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किस फसल बीजा गया
यह बीज मन का ?
गहरे-बहुत गहरे
धरती की अंतड़ियों को जकड़ पैंठी जड़ें,
गर्भस्थ-
जहरीले सँपोलों से, मकोड़ों से
लड़-खड़, झगड़
देती रही रसधार
उषा की गोद में हँसते
सनातन सूर्य को साक्षी बनाकर
विकसते
और संध्या की थपकियों से उनींदे
स्वप्न-बीजों को;
यह किस फसल बीजा गया ?
क्षुद्रतायें लांघता ऊपर उठा,
उठता गया कि-
उथली उलझनों की टहनियां
घेरे नहीं लम्बी परिधियाँ,
पर वक्रताओं में उगे,
उभरे अभावों के कठफोड़वे को
आदत नहीं है देखने की
संवरती ऊँचाइयाँ मन की,
नुकीली चोंच से
चोटें लगाता जा रहा है,
छोलता ही जा रहा है रेशई वतैं कि-
जा न पाये और ऊपर
अब कहीं जीवार्द्रता !
यह किस फसल बीजा गया ?
मन की आस्था
ईमान के ओ, सबल-साक्षी
सनातनी सूरज !
मन अगर झुलसे
तुम्हारी आग में झुलसे,
मन की गति के सृक्ष्म-दृष्टा
ओ गगन के मारवाड़ी पवन-पौरुष !
मन अगर टूटे
तुम्हारी रगड़ से टूटे
सिर्फ इतना याद रखना
अभावों का कठफोड़वा तोड़े नहीं मन को !
चाहे जिस फसल बीजा गया हो
बीज मन का !
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हम जो
सड़े हुए आयामों को
गहरी खाई में गाड़
गज़ार बनाने को आतुर हैं,
उन-हम सब पर
पहरेदार-समय का
पहरा लगा रहा है, कि-
हमलोंगों की साँस-साँस में
कड़वाहट घुल जाये,
हम भारी पांव चलें, बहकें,
कुछ दूर चलें, गिर जायें,
लेकिन हम-जो
नंगे बदन
कुदाल-कढ़ाई लिये खड़े हैं,
आओ, पहरेदार समय की
हमलोगों से
अनमेली पोशाक छीन लें
साथ हमारे
चलने की तहज़ीव सिखादें !
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हम सबके
अस्तित्व का आधार हो
धरती हमारी,
हम चलें
अपनी हवाओं को पीते हुए,
हम कहें, बोलें-
हमारे ही आकाश में बनते
जीवाणुओं का कथ्य,
यह पहली शर्त हैं-
अभी से अनागत जिन्दगी तक की;
हम में से
किसी ने भूल से
या स्वयं के बौनेपन से खीज़
जीने के लिये
नये के नाम पर अचाहा ले लिया हो कुछ
पड़ोसी दोस्तों से,
जो भी उनके पास था
सीलन भरा, सिकुड़ा हुआ,
या हममें से किसी ने
सीध चलने की वकालत की
या कठघरे में बैठ
पुजने की हिमाकत की,
पर आज के हम सब
ऐसी संज्ञाओं,
क्रियाओं को
जीवन नहीं कहते, जीना नहीं कहते,
हम तरासे जा रहे हैं-
नई सड़कें !
नये सम्बन्ध !
आंकते ही जा रहें हैं हम
नई सम्भावनाएँ !
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वे जो हैं-
सुबह की सीध देते हैं
अंधेरी रात को,
वे जो औंधे-
बिखरे-से लगते हमें
पर एक ही आंगन खड़े हैं पांव थामे,
वे जो दूर से
ओछे लगते हमें
मगर परछाइयां उनकी
सीधी उतरती-
भीड़ ढो-ढो कर थकी-हारी धरा पर,
वे जो सींचते हैं
रोशनी के झल-मली झरने, कि बोलें हम-
यह माटी उर्वरा है,
वे जो सौंपते हैं-
सरजना के देवता को कुंकुमी चूनर,
पंछियों के स्वर,
नई क्रियाओं की धरा
स्वयं के विसर्जन की घड़ी में,
वे जो जड़ लगा करते हमें
संकेत देते हैं-नई दिशाओं के !
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मत छुपो कि-
धूप तीखी है, कि-
पांव जलते हैं, कि-
टोकने को शूल चुगते हैं, कि-
खून रिसता है;
मत डरो, कि-
आंधियां हैं तेज,
धुप अंधेरा है
आकाश की छत पर
धरा के आंगने;
मत सुनो, कि-
दूर से डूबी हुई आवाज़ आती है
दिशायें फेर लेने की, कि-
ओछे मोड़ लेने की;
ओट में दुबके हुओं को उत्तर भेज दो, कि-
कच्ची-मौसमी दीवार के
उस पार
जन्मने अकुला रही है
एक अरूणा-ज्योति-
जीवन की नई सम्भावना-
बस, हमारे पहुँचने भर की प्रतीक्षा है !
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बूढ़ी जवानी-सी खड़ी
चौहदियों में कैद
टूठ-जैसा बुत हमारा-
द्वार लगती
आहटों को सुन रहा है,
दो घड़ी
अनजान आव़ाजें रुका करती,
पूछा करती पड़ोसियों से
फुसफुसाती
सरसरी नज़र फेंके सरक जाती
और भीतर
रोटियों की महक में भरमें
कीड़े-मकोड़े
जोंक-से चिपके
हमारी पिंडलियों में गड़ते जा रहे हैं,
खून खाये जा रहे हैं
और दो-चार
आँखें पथराये पड़े हैं
क्षयरोग के बीमार-सी दबती,
धसकती नीवें देखे जा रहे
बिना औजार वाले कारीगर सरीखे हम !
सोचते हैं-
एक आंधी और आये
और बरखा
इस तरह झकझोर जाए
कि ढह जाये हवेली का बुढ़ापा,
ये पैबन्द वाली जालियां फट जायँ
सब खुला-खुला हो जाय-
हम आकाश ओढ़ें,
धरती को बिछायें,
धूप खा-
पीलें हवाएँ !
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कुछ विश्वकर्माओं ने दी
पुरानी-सी हवेली !
हवेली क्या-
धरोहर हैं हड़प्पा-मोहनजोदड़ो के बाद
पनपो सभ्यता की,
विवशता कहदें
या अपने साहस को प्रशंसा दें
कि हम अपने कुनबे सहित
रहते रहे हैं इस हवेली में
जिसमें दीमक ही दीमक लगी हैं
जाले तने हैं,
हर घड़ी चमगादड़ों की भीड़ चीखती हैं;
वर्षों-
गर्मिणी रहकर
हमारी सांस ने
नयी सम्भावनाएं जायी है,
वे न रह पायें शायद
ऐसी हवेली में
इसलिये अथ से
हमारा साथ देती
आस्था ! तू आ,
लम्बे हाथ-
जिजीविषाओं के फिराकर
पोछें-जाले-दीमकें,
हम मिट्टी गोद लायें,
दीवारें नयी कर दें,
तू आ !
अँजुरियां भर-भर उलीचें धूप
आंगन में,
कि अंधी हो जायें
सभी चमगादड़ें
हवा महके हवेली में !
तू आ !!
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मेरे मित्रो !
मेरी तुम्हारी मित्रता मात्र व्यक्तिगत नहीं
विचारों का पहलू लिये हैं,
यही पहलू मेरे लिये तुमसे
और मुझसे तुम सब के लिये
एक से अक्षर लिखाये जा रहा है,
एक ही पथ पर बढ़ाये जा रहा सबको;
मेरे मित्रो !
सलोना है, अमोली है मेरे लिये तुम्हारा स्नेह,
भिगोता है
अपनों-परायों से चोटिल हुए मन को,
कोसा है मैंने बहुत
अपनों-परायों को,
किया है उन्हें बदनाम अपने अक्षरों की जोड़ में;
ओ मेरे दो-चार मित्रो !
तुम भी तो कभी अनजाने ही
तीखे चाबुक फटक देते कि
मैं किसी क्षण रुकने सा लगा करता कि
पिछले दाग़ी पृष्ठ
फिर-फिर खोलने लगता,
मैं गुडूँ कि-
बाहों में भर कर आगे बढ़ा देता
मुझको तुम्हारा स्नेह !
मेरे मित्रो !
तोलता हूँ मैं-गये कल के
अपनों-परायों को,
उनसे जो कुछ भी मिला-उकसो,
तुम्हारे चाबुकों की मार से
उगरी खरोचों को;
शायद मेरी नग्नताएँ
या फिर तुम्हारी कुछ कुलीना आदतें ही
विवश कर देती तुम्हें
अहम् का चाबुक फटकने के लिये,
क्या करो तुम ?
रूप आखिर रुप है नवोढ़ा परिधियों का भी ?
मेरे मित्रो !
करूँगा अब न कोई भी शिकायत,
हल्की टीस भी उभरने न दूँगा,
क्योंकि तुम में भार ऐसा आ गया है-
पलड़ा एक तिल हिलता नहीं झुकता नहीं,
लो, मैं अपनी चुनिदा वक्रताएँ,
नग्नताएँ ले
किसी भी छोर तक तुम्हारे साथ हूँ
देखूँ कि-
कितना साथ देते हो, कि-
कितना साथ लेते हो ?
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झाइयां देती,
हिलकती पर्त के उस पार-
हरे-भूरे
सहारे के लिये भटकती
ओ, यायावरी इच्छा-मछलियों !
छप-छपक ध्वनियाँ सुनो-
कि मौसम का शिकारी
तुमको
याद की गाँठें लगाकर
बाँध लेना चाहता है,
बँध गई तो
तुम उमर भर
वर्जना की काठवाली
नाव की दीवार ही देखा करोगी,
ठूंठ जैसी
परिधियां पहरा करेंगी,
और तुम तड़पा करोगी,
एक दिन मर जाओंगी;
ज़िन्दगी की ललक
ओ, इच्छा-मछलियो !
सुनो, ये सीमाहीन पतैं भेद
आगे-और आगे सरक जाओ,
कि गहरे-
और गहरे पैठ जाओ,
और थोड़ी दूर पर ही
जलोदरी घड़ियाल
पानी के सौपोले
जो तमको निगलने की बाजी लगा
ऐंठे खड़े हैं,
तुम उनसे होड़ लो,
उन सबको थकन दो,
लड़ो-लड़ती मरो,
ओ, साँस पीकर जी रही इच्छा-मछलियों !
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कच्ची उमर की
अनेकों रंग घोली हुई प्यालियों में
डुबो सांस की कूंचियाँ
अनागत के कैनवास पर
हमने सपने चितारे-
निहोरती साँझ के,
आकाश-गंगा में बहते हुए प्यार के
और रागें छुआती
सरकती रात के रंग भरते हुए
हम निंदिया गये,
और सोये ही रहते बड़ी देर तक-
मगर हेम का गर्भ फोड़
जन्में हुए सूर्य ने
पोर-पोर किरणें चुभाकर जगाया हमें
देखते ही रहे हम-
नीला फैला हुआ कैनवास
धूप सा हो गया,
रंग सारे उड़े
न निहोरती सांझ थी,
न आकाश गंगा का
बहता हुआ प्यार था,
शेष थे
सिर्फ दो-चार हासिये-
जिन्हें जोड़कर हमही अकेले बने-
सांस फूली हुई,
पेट चिपका हुआ,
हाथ ताने हुए,
आंख में सुर्खियाँ-
सिर्फ सुर्खियाँ फैली हुई,
हाँ, हम ही खड़े थे-
हड्डियाँ जोड़ कर
ऊँची बहुत ऊँची
उठाई गई दीवार जैसे !
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यह पठारी मन-
जो ऊपर से
बहुत ही खुरदरा
खामोश लगता है,
यह पठारी मन-
जो भार ढोए जा रहा है
जीवन की अनगढ़ व्यवस्था का
यह पठारी मन
जो मौसम के हाथों
खिचती खरोंचें देख गूंगा हो रहा है,
टीस की हुचकी दबाए चल रहा है,
एक बिन्दु तक पहुँचने के लिए-
यह पठारी मन
जिसकी अनापी पर्त के नीचे
गर्म साँसें
कसमसाए जा रही हैं,
और इन
गर्म साँसों के धुँए के और नीचे
धैर्य्य की चट्टान में
दरारें आ रही हैं
और इस
चट्टान के कुछ और नीचे
सुर्ख लावा
बुद-बुदाए जा रहा है;
ओ, कुब्जा-सभ्यता के पेशवाओं !
प्रवक्ताओं, सुनो
कि तुम सीमान्त बिन्दु पर खड़े हो,
सम्हलो !
अनागत का अनामीक्षण
भूड़ोल लेकर आ रहा है
मृत्यु के संकेत को समझो,
ओ, दागी व्यवस्था के संयोजको !
यह पठारी मन
जो ऊपर से
बहुत ही खुरदरा
खामोश लगता है !
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अपनी और पराई
सब पीड़ाएँ
हमसे ऐसे एकाकार हो गई
जैसे सागर में
नदियों के चेहरे अलग बताना मुश्किल !
चाही-अनचाही
कच्चे मनवाली
उथले तनवाली पीड़ाओं से
चोटिल,
और दरारित होकर भी
बैठे हैं ऐसे
जैसे उलझी-उफनाती
लहरों से तट का मौन तुड़ाना मुश्किल !
सुना हुआ है-
मौसम-मौसम
खून बदल जाया करता है
इसीलिए
बदरंग
रंग सब पीड़ाओं को,
सांसों में इस तरह घुलाया
जैसे दूध और पानी अलगाना मुश्किल !
जाने इनसे
किस मुहूर्त में
गठबन्धन हो गया हमारा
अनगिन
मन्वन्तर जी आए
नहीं जानते
और अभी कितने जीने हैं
ये सतर्वती पीड़ाएँ
ऐसे साथ चला करती हैं
जैसे सूरज से धूप छुड़ाना मुश्किल !
अपनी और पराई
सब पीड़ाएँ
हमसे ऐसे एकाकार हो गई
जैसे सागर में
नदियों के चेहरे अलग बताना मुश्किल !
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एक बहरी सभ्यता आई
बिछा बारूद
मन के चौखट पर,
चढ़ गई ऊँचे
बहुत ऊँचे कंगूरों पर;
सीलन भरी बारूद-
जिससे दुर्गन्धा रही सांसें
अँधेरी बांबियों-सी
यह बारूद-
हड्डियों को पकड़
पसरी ठर रही है
उम्र की दीवार पर;
बिना पेंदी के आकाश में
अटके हुए जो भ्रूण के सूरज !
मात्र दर्शक मत रहो,
भरम के बादलों की
ओट मत लो,
तेंवर बदल धूपो
-कि आदम जात पुतले
अगियाये हुए भागें-
हर दिशा हर छोर,
इस तरह लपटें
कि गोरा-काला और पीला
भेदने वाले ये शीशे
चिटचिटा कर टूट जायें
और जो हैं ठूंठ
धू-धू कर जलें,
रह जाय केवल राख की ढेरी,
यह-ढेरी-
फिर भीगे पसीने से
और पूरी एक जैसी ही
फसल के बीज फूटें !
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ओ अपाहिज आस्थाओ !
घुटन-कुण्ठा-अहम्
भुभुक्षा की चौकोर शैयां पर लेटी रहो-
चीखो नहीं,
यह नहीं होगा कि-
मैं तुम पर दया करने
तुम्हारे पायताने लौट आऊँ,
जीव हत्या के बहाने से डरा हुआ
मैं रामायण सुनाऊँ,
तुमको तुलसी-गगांजल पिलाऊँ,
ओ अपाहिज आस्थाओ !
तुम जो अब बुढ़िया गई हो,
तैरता है-
मौत का दर्पण तुम्हारे सामने,
हद है कि-
तुम हर सांस को जीवन कहे जाती,
जिये जाती,
ओ अनर्थक खोखलाई आस्थाओं !
मृत्यु-शैया पर पड़ी-पड़ी देखो-
मैं ताज़ा खाद खाई माटियों में
बीज डाले जा रहा हूँ
गर्म सांसों से पिघलते मोतियों से
सींचता ही जा रहा हूँ-
मैं सहेजे जा रहा हूँ
कांपली-आयाम को कि-
बदबू के कीटाणुओं की
छांह भी छूने न पाये
ओ दी घड़ी की उम्रवाली आस्थाओं !
तुम्हारे लिये
इतना करूँगा कि-
जब दम टूट जायेगा तुम्हारा
देह पथरा जायेगी जब
मैं नगारों मर अवामी घोषणा में पीट दूँगा-
लो, अपाहिज आस्थायें मर गई हैं !
मैं अकेला ही उठाकर ले चलूँगा
आग दे दूँगा खुले शमशान में,
करो विश्वास !
लौटता बेला-मैं भूलूंगा नहीं
तुम्हारी ढेरी पर
तख्ती लगाना-
यहाँ दे दी गई आगुन अपाहिज आस्थाओं को !
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सांस के बाज़ार में
उपलब्धियाँ जितनी मिलीं
नंगी मिलीं,
लाज तो आई बहुत
कुछ हिचकिचाहट भी हुई लेकिन-
इस आदमीनुमा अस्तित्व के लिये
उन्हें स्वीकारना ज़रूरी था,
लिया ढोया
उन्हें ढांपा बहानों के कमज़ोर पर्दाे में;
उपलब्धियाँ-
जो भविष्य की भूमिका बनाने के लिये ही
दी गई हैं,
सब की सब कुरूपा हैं,
प्रतिमूर्तियाँ हैं ये भुभुक्षा की
जलोदर की-पिपासा की
और मेरे सामने वाले
बड़े बाज़ार के शौकीन व्यापारी
सभी खुश हैं,
ये अपने गोरे-चिट्टे मुँह पर
अनिच्छा की शिकन डाले
उपेक्षाई-नज़र से झाँकते हैं-
मेरी जर्जरी दरारों में कि-
मेरे घर
लड़ाई है, तमाशा है नम्रताओं का !
इन्हें छिपाने के लिये
बहुत मोड़ा-मरोड़ा हैं मैंने स्वयं को
खामोश रहने के लिये
इनकी बहुत मनुहार करता हूँ
मगर नहीं मनती, नहीं चुपती;
दे दिये
गिन-गिन कर सभी अरमान
चुकते कर दिये आँसू
इनकी भूख की लपटें बुझाने में,
पर इनकी भूख,
इनकी प्यास वैसी की वैसी है,
मुझे डर है कि-
मेरी आस्थाएँ
इनकी हरकतों से ऊब कर
इनकी हत्या के लिये कहीं विद्रोह न कर दें-
ओ, मेरे सरीखे दोस्त !
रूख किस तरफ बदले हवाओं का-
इसकी गवाह देना !
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हमको
समझौतों पर
जीवन जी लेने का कहने वालो !
सुन लो,
हम अपनी चौखट से बोल रहे हैं;
हम उस जीवन की धड़कन हैं
जो पत्थर तोड़ा करती है,
हम उस जीवन की सरगम हैं
जो सांसें धोंका करती है,
हम उस जीवन के दुलार हैं
जो कुन्दनिया तन से रिसता
खारा दूध पिया करता है,
लाज हमी हैं उस जीवन की
जिसको केवल मन की ओट मिला करती है,
हम उस जीवन की घर-गृहस्थी
जो आवारा भूख-प्यास को
आंगन में बांधे रखती है,
दर्द हमीं हैं उस जीवन के
जो लोरी सुन
फुटपाथी मखमल पर सो जाता है
सोते में बहका करता है,
हम उस जीवन की भाषा हैं
जिसके छन्द बुने जाते मरघट में,
गीत हमीं हैं उस जीवन के
जिसे काफ़िले परभाती कहते हैं,
हम उस जीवन की अभिलाषा
जो सपनों के बदले
सावन नहीं खरीदा करती,
हम वह जिजीविषा हैं
जो जीने के लिए
कभी ईमान नहीं बेचा करती है;
हमको
समझौती-चुम्बक दिखलाने वालो !
हम जीवन की ऐसी परिभाषा हैं
जिसको पढ़ने
तुमको अपनी आँख भिगोनी होगी
और समझने
लम्बी उम्र लगानी होगी;
ओ, समझौतावादी लोगों !
ये सुविधाई-न्यौते
ये सुखछापी सिक्के
बौने हैं, हल्के हैं-
उस चौखट पर
जिस भारीपन से, ऊँचे मन से
आयाम हमारे बोल रहे हैं !
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दोस्त
ऐसी जिन्दगी
जीते गए होते तो क्या होता ?
धोंकनी से सांस लेते
सांझ की अंगीठी से सुलगते
और फूटी थालियों से चिपक
रोटी-राम जपते
घिसटते-बौने गदारी देख
धरती के बिछौने पर
आकाश ओढ़े सो गए होते तो क्या होता ?
धूप सी सती पर रीझते
उगा लेते फफोले
वेश्या सी छाँह को छूने न देते
और सड़कों पर भटकते
बिना हड्डियोंवाले सपोलों
विषैली फूत्कारों से रगड़ खाए गए होते क्या होता ?
खुदगर्जियों की
खपचियों पर टिके बीमार सपने
किस्मत में लिखे
सूजन चढ़े संकल्प सारे
पत्थरों को
सर झुकाती अस्थाएँ
और नये कल की
भूमिका भी
बाँच पाने में असमर्थ आँखे-
ऐसी
अपाहिज जिन्दगी को छोड़कर, ए दोस्त !
तुम अभी से बहुत पहले
बहुत पहले मर गए होते तो क्या होता ?
दोस्त
ऐसी जिन्दगी
जीते गए होते तो क्या होता ?
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खूबसूरत बहानों की
फसीलों में बन्दी हमारे दोस्त !
न रहते तुम हमारे गाँव
पर एक यह भी जिन्दगी तो देख जाते-
यह अष्टवक्राई हुई सीमा
यह खुरदरी धरती
ढलानों पर, चढ़ानों पर बसे ये घर
जिनकी बनावट,
विश्वकर्मा की कारीगरी से कम नहीं है,
अभावों के झरोखे
इस तरह काटे हुए हैं कि-
हर बदचलन हवा यहाँ आकर ठहरती
रिक्तताओं की बारादरी
हम मोड़ से खेंची गई है कि-
बंध्या सी त्यागी हुई
यह नंगी धूप यहीं आकर लाज ढँकती
एक ही
मीनार से परिचित हमारे दोस्त !
कुतुब की लाट से अधिक बूढ़े
अधिक ऊँचे
हमारे घर में बहुत गहरे से उठे
ये कर्ज के सौ-सौ मीनार देख जाते;
ये बड़े चौपाल
ये बड़े आंगन
मौसम की
हर बदतगीज़ी को बर्दास्त करते हैं,
गुलाबी मोर को,
सुहानी सांझ को नज़र न लग जाए कहीं
इसलिए घरों की चिमनियाँ
आकाश के मुँह पर धुँए के टीके लगाती हैं,
हमारी
भूलों के गवाहों की अपाहिज फौज
मोच खाई थालियों को पीट
रोटी राग गाती है
और हम खानाबदोश मालिक
यह आलम बदलने की
मौसम बदलने की
टकरा कर लौटी हुई आवाज़ पर
बहलते जा रहे हैं,
जीते जा रहे हैं;
सुनो ! घरों की ड्योढ़ियाँ इतनी बड़ी हैं
कि हम सरीखे
सैकड़ों हम दम चले ही जा रहे हैं,
एकाकर होते जा रहे हैं,
थोड़ी प्यास,
ओछी बरखा के लोभी हमारे दोस्त
हमारी भूख की
हमारी प्यास की
ज़िन्दादिली तो देख जाते !
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हमारे गांव
सपने रोज बनते हैं
हर भोर बनते हैं,
हर सांझ बनते हैं,
रंग सपनों का
सरसों की फसल से कम नहीं होता,
रूप सपनों का
मधुमास से कुछ कम नहीं होता,
सपने हमारे
खोखले आकाश में
जन्मा नहीं करते, तैरा नहीं करते,
ये घर की लाज के हाथों
गूँथे हुए सपने
अंगीठी के अंगारों पर निखरते हैं
जिन्हें हमसे अधिक
हमारी भूलों के लिज-लिज नमूने
बेहद प्यार करते हैं,
हमारी खोजी कल्पनाओं को
सपने बनाने का सामान
जब मिलता नहीं
तब ये नमूने
यूँ बिलबिलाते हैं कि-
सावन की घटाओं की गर्जन
हल्की लगा करती,
ये ऐसे चीखते हैं कि-
बिजलियों की कौंध
घुटती सी लगा करती;
और अपने दूध से ही
कतराकर बैठी
घर की अहिल्याई हुई यह लाज !
जिसकी आँखों से
पीड़ा ऐसे पिघलती है कि-
बरखा की रिमझिम फीकी लगा करती,
सपने हमारे-
चाँद जैसे ही दागे हुए हैं गोल-गोल
जिनका मोतियों से भी
अधिक है गोल,
जिन्हें हम
दूज-तीज-चौथ का चन्दा
बना कर बाँटते हैं
और जिनसे
भूख की दरार पटती है
ये सपने हैं-
जिन्हें हम रोटी ही कह कर पुकारते हैं !
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राम-राज युग की
ओ, बैदेही पीड़ाओ !
कितना और पढाऊँ तुमको ?
सच है
मौसम के हठियाए लव-कुश
हर क्षण
तुम्हें कुरेदा करते,
मौनी मन को टोका करते,
पूछा करते
ये चल्कला जिन्दगी की परिभाषा
यह भी सच है
इतिहासों में मँढने का
लोभी-आदर्शी राम,
तुम्हारे आगे
सीधी रेखाओं सा खिंच जाता है,
चुभ जाताह है,
राम-राज युग की
ओ, सीताई पीड़ाओ !
सच है,
तुम अनकही कथाओं के
पिघले लावा को
कोरों की खोहों में
अटकाए रखती,
लव-कुश की जिज्ञासा को बहलाए रखती
लेकिन
मर्यादा का संस्कार लेकर जन्में
ये लव-कुश
अश्वमेघ के आकर्षण को छोड़ नहीं पाएँगें,
और स्वयं का अहम् उभारे टकराएँगे
एक बार फिर और
तुम्हारा सत्य तौलने समझौता कर लेंगे,
ओ, मेरे धीरज के
बाल्मीकि के मन की तपोषनी शोभा-पीड़ाओं !
यश-कुबेर यह राम
सुखों के अन्वेषी-
ये लव-कुश
तुम्हें तराजू, पर रखने आएँ
इससे पहले तुम
विस्मृतियों की धरती में गड़ जाओ
खो जाओ, अस्तित्व मिटालो,
मैं धीरज का वाल्मीकि
फिर रामायण पूरी कर पाऊँ
वेद-ऋचाओं जैसे राज पुरुष की
अनुयायी पाठक लव-कुश की
एक नई टीका लिख जाऊँ
और अनावृत करता जाऊँ
राम राज को चौराहे पर
ताकि अनागत से, बस जन्म लिया चाहने वाले
मेरे ये लोक-युगी आयाम
नया संदर्भ ले सकें !
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सुर्खिया
जो सपने दे गई हमको
वे चिमनियांे के धुएँ का
जहर पीकर मर गए है,
जिन्हें हम
धूप के कफ़न में बाँध
ढ़ोए जा रहे हैं,
भीड़ भी ऐसे ढ़केले जा रही हमको
कि बोझ का अहसास भूले जा रहे हैं;
हमें डर है
कि हम इन खूबसूरत लाशों को
दफ़न करने
कहीं बैठे रूके तो,
उम्र का आँचल पकड़
कमज़ोरियाँ रोने लगेंगी,
और पाँवों की बिवाइयों का खून
दाग बन कर फैल जाएगा,
और माँ के मोह जैसी दूरियाँ-
हमें ठहरा हुआ सा देख
पथरा जायँगी,
मर जायँगी,
यह सही है कि
कच्चे मांस वाली ये लाशें
सड़ने लगी हैं
और बदबू से
उल्टी दिशाओं में रहते
गुलाबों की महक से
सांस लेने के आदी
ज़माने का दम घुअ रहा है,
हम क्या करें
मज़बूर है हम भी
उमर की
आखिरी इकाई तक
कि दूरियों को गोद देकर ही रहेंगे हम
सभी सपने
जिन्दा नहीं, गुर्दा सही !
सुर्खियाँ जो सपने दे गई हमको !
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पास जो भी था
सभी कुछ दे दिया
अपनों-परायों को-
केवल एक ही रक्खा ईमान
और वह भी जीने के लिए-
सोचा था-
इस धूप से ईमान के सहारे
ढाँप जाऊँगा मैं
नंगे सपनों से भरे आकाश को
और पानी के छलावे भर दिखाकर
मैं भगाए ले चलूँगा
दूर, लम्बे दूर
सूखे देश जन्में सांसों के हरिन को;
कहा ईमान ने तो
आंधियों की बाढ़ में डुबो दिए सपने
और गिन-गिन तोड़ डाले
पिछली यादों के झरोखे;
यह ईमान
जिससे दुश्मनी गांठे हुए यमराज
मेरी ड्योढी से
चुराकर ले गए कुछ
और ले जाने अकुला रहे हैं;
ओ,
थोड़ी दूर भर के साथियों !
थक गए हो तो
तुम्हें अपने चरण दे दूँ
कहो तो
तुमको अपनी आस्थाओं से सींचू-सँवारूँ
ओ,
थोड़ो दूर भर के साथियों !
सौगंध है तुमको हमारे साथ की
सौगंध है तुमको मेरी बग़ावत की
मांगो न वह ईमान
मैं जिसके सहारे चल रहा हूँ
मैं, धर्म की माँ,
धर्म का बाप इस ईमान का-
कैसे छोड़ दूँ इसको
जिसके सहारे जी रहा हूँ !
पास जो भी था
सभ्ज्ञी कुछ दे दिया अपनो-परायो को !
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ओ हमारे हम-उमर-से दर्द !
दूध सांसों का
पिलाया इसलिये नहीं कि-
तुम कछार गोदते रहो, कि-
गुमसुम गंध छू जाये तुम्हें
तुम बौराये फिरो,
कबतक तुम्हारी टोह लें ?
बांधे रहें कैसे तुम्हें ?
अब तुम भी तो सयाने हो-
सुनो-समझो !
अभी हम
जिन्दगी के जिस मुहाने पर खड़े हैं-
दो कदम ही बाद-
संगमूसा की पहाड़ी रास्ता रोके खड़ी है,
हम अपनी सारी चेतना के साथ
इसे विस्फोट देना चाहते हैं,
अब तक की उमर के
एक ही अपने-हमारे दर्द !
तुमने तो सारे सफ़र का साथ देने की
सौगंध ली थी,
इस नाजुक घड़ी में-
अलगाओं नही हमसे,
आ, हम अपनी चेतन-शक्तियों का भ्रूण
इस पहाड़ी की
जड़ों में गाड़ दें
कुछ धरा डोले,
आकाश कांपे,
और अरांकर ढह जाय यह काली पहाड़ी !
रास्ता बन जाय-
हमारे बाद आने वाले एक लम्बे काफ़िले
के लिये-
युग बोध हैं हम
पहलुए गर्भस्थ पीढ़ी के,
सुख से जिये
और कुंठायें लिये मरे
वे कौरव पाण्डव और यादव हम न कहलायें
हमारे दर्द !
हमसे जुड़े रहो तब तक कि
इस पहाड़ी पार के
घंटे घड़ियाल शंख फूंकें हम !
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ओ सलोने दर्द !
बहुत हो पीछे अलगा गये
खिलौने के लिये
हठिया नहीं,
तेरे कुनमुनाने को न्यौता समझ
छुपे-छुपे चलती हुई
यह याद की बदरी-
अजन्ता के जड़ाऊ चित्र-सी
फैली हुई मेरी आँखों में
बरसने को उतर आ जाएगी
और मेरी
दूरियों के पाँव चलती राह
धुंधला जायगी;
लाडले, सयाने दर्द !
मत खींच, मेरी सांस की चादर
सांस है आखिर
फट जायगी,
मेरे बुजुर्गो ने गहरी जड़ो से
भरमों की फसीलें को ऊँचा उठाया है
झरोखे मत बना इस में !
मेरी गृहस्थी की कुलीना लाज को
नज़र लग जायगी,
यह लाज-
वैदेही सती सीता-
जमी में गड़ जायगी
और मेरी जिन्दगी भी
धूप से बाजी लगाकर
नाचने लग जायगी
ओ, मेरे अनागत के विश्वास !
मेरे बोध ! मेरे दर्द !
खिलौनों से बहलाना छोड़,
रेंगना सीखा है जैसे
सीखले चलना भी अँगुली छोड़ कर !
तू उम्र से पहले सयाना हो
सलौने दर्द !
मेरे संस्कारी दर्द !
कन्धे से कन्धा मिला कर चल !
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वर्षों से बीमार दर्द
अब किसी तरह मर जाये तो अच्छा है।
यह दर्द-
जिसे मन के कमजोर लोग
रख गये हमारे द्वार
यह दर्द-
प्यार के यहूदियों की लावारिस सन्तान
जो हमको बड़ी हवेली वाला समझ
किया चाहते होंगे व्यापार,
यह दर्द-
हमारा अनचाहा महमान कि-
जिसकी खातिर हमने
नंगी छतवाले जीवन के घर का
चूना-ईंट कुरेदी,
जगह-जगह कर दिये झरोखे,
बेच दिया सब कुछ
केवल ईमान छोड़ कर;
क्या मालूम प्यार-खोरों को
जीवन क्या होता है?
जिजीविषा कैसी होती है?
यह दर्द-
किसी पांचाली जैसा
सिर्फ सुखों के लिये न चीखे तो अच्छा है,
हमें, हमारे
नंगेपन के लिये न टीसे तो अच्छा है,
यह दर्द-
धूप खाये, हम जैसी प्यास पिये
हम-दम कहलाये तो अच्छा है,
अन्यथा हमें डर है कि-
अनागत जीवन के ये दावेदार-
हमारे सांसों के टहलुए
कहीं ईमान बेचने की सीमा तक
आते आते
अनचाहे मेहमान दर्द को जहर पिलादें
और हमारे
अंगारों की आँच उजाले हुए इरादे
एक अपाहिज की हत्या के दायी हो जाय,
किसी तरह यह दर्द-
स्वयं की मौत बुला मर जाये तो अच्छा है !
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नींद में
डूबी हुई कमज़ोरियाँ
अचानक सातवें स्वर में
जब फूटती हैं
और घर की रोशनी का आँचल पकड़ कर
ज़र्द चेहरे
भूख की दुर्गध लेकर डोलते हैं-
हम समझते हैं-
यही है भोर की बेला !
बन-पाखियों के स्वर,
प्रभाती लोरियाँ
सारंग की भीनी पखावज,
गुलाबों सी महकती सुबह
फिर किस दिशा से झांकती है?
खीज का सूरज
जब तमतमाता है,
गीले कोलतार की सड़क पर
पांव दगते हैं,
कोरे कागजों पर
इतिहास की संज्ञा लगाती
लेखनी को
थकन जब घेर लेती है,
और जब अभावों के आँगन
नमकीन पानी के
बादल बरसते हैं,
हम समझते हैं-
इसी का नाम सावन है !
पनघटों पर पायली झंकार,
केवल एक बून्द की प्यासी
कोई चातकी मनुहार,
गहराई घटाओं से
रिमझिम बरसता सावन
फिर कौन से आकाश आता है !
सांस-
जब बीमार यादों पर
कफ़न ढालती है,
दूरियों को
जो तीरथ समझकर पूजती है,
धूप को
जो साथ चलने के लिए आवाज़ देती है
हम समझते हैं-
यही है ज़िन्दगी !
फिर किस ज़िन्दगी की बात करते हो ?
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हर सुबह के साथ
मैं अभावों के हुज़ूम में बहता हुआ,
नारे लगाता,
धूप खाता
कड़वी भाप से बुझाता प्यास
और पांवों के तले दम तोड़ती
सलोनी याद की हर लाश पर
मैं नफ़रत के बहानों का
कफ़न ढाले चला जाता
सांझ तक अपनी गली में लौट आता-
द्वार बैठा देखता हूँ-
आदमी के बेटे
पेट की मटकी बजाते हैं,
एक रोटी बाँटते-झगड़ते
और सुबह होने तक
मरे-से लेट जाते हैं
और मैं भी
नींद के आगोश में
बेहोश होना चाहता हूँ
पत्थराना चाहता हूँ
पर सियाही में डूबी हुई यह रात-
मासूम यादों की ऐंठी हुई लाशों पर
ढाले गये कफ़न
उतार लेती,
और फिर हर एक लाश उठ-उठ
मेरी आँखों की झुलसती ड्योढ़ियों पर
नाचती है
इन बेजान पुतलियों से
घिरा-घिरा मैं जी रहा हूँ
जिये ही जा रहा हूँ !
हर सुबह के साथ
फिर अभावों के हुजूग में
बहता हुआ
नारे लगाता हूँ, झण्डे उठाता हूँ
और पांवों के तले
मासूम यादें.....!
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बिना मां बाप की बेटी
यह खूबसूरत भूख-
सुबह से पहले जगा करती,
सुगुनिये-सी
सूँघती फिरती है
ठौर-ठौर, ठांव-ठांव,
बेहया धूप-सी नचती,
रूका करती नीची छतों वाली
टाट से ढकी दहरियों पर;
गहराइयों से उठ-उठ
दीवारें कुतरती,
खारे झागवाली
सीलन से धसकती गृहस्थी में
यह धीरज के अटकन लगाती,
यह भूख-
घर की लाज के आगे
जवानी के करतब दिखाती,
मज़मे लगाती,
और हम-
अघोरियों के लिये इंधन बना
चिमनियों से धुँआ उठा
झुलसे हुए
घर लौटते हैं,
आदमी हैं-
जीना है हमें भी !
इसलिये
दुखती-खिसकती
हड्डियों के जोड़
मज़बूरियों के नाम
रोटियों की रिश्वत के
दो-चार टुकड़े
फेंक देते हैं इस भूख के आगे
कि सांझ-सी
थकी-सी ढरक जाये,
थोड़ी देर के लिये ही
रात-सी, मरी-सी लेट जाये !
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क्या ज़रूरी है-
यह भूख
अब इस ढलती उमर में अदब सीख ले?
यह भूख
जन्मी जिस घड़ी
तभी न बजी थालियां
न बाँटे गये नारियल
और तो और
परिणीता गोद भी इस तरह से लजी
ऊँचे उठे पत्थरों से डरी
भागती जा छिपी
एक शमशान की आग में,
दुधमुंही भूख पानी ही पी-पी बढ़ी;
गुलामी-
भूख की जिन्दगी का है पहला नियम
इसलिये अहम् के,
रंग के रूप के, सूर्ख चाबुक
तड़कते रहे
हिचकियां लेती हुई
सांस की डांड चलती रही,
भूख
यूँही उभरती जवां हो गई,
भूख
एक से दो-तीन-चार हो गई,
इसी-भूख ने ही
भरम की हवेलीनुमा पाठशाला में
सूखी किरकिरी रोटियाँ बाँट
जीवन-जिया
और जीना सिखाया
एक से एक जुड़ती गई भूख को !
और तो और
बीमार या कमज़ोर
झुकती हुई भूख के नाम
सजायें लिखी
मौत के गाँव में अज्ञातवास की !
इस भूख का एक अपना नगर
एक अपना हुज़ूम,
एक अपना नियम !
यह भूख
मांगे सुखों पर जिये ! यह अदब सीखले !
हुकुम पर चले-यह होगा नहीं !
यह भूख एक ठंडा हुआ फौलाद है
जो झुकता नहीं
जो बिखरता नहीं,
सिर्फ टूटता भर है
इस छोर से किसी छोर तक !
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दिन ब दिन
यह भूख
बदतमीज़ होती जा रही है !
हर सुबह,
हर साँझ
कुंडी खटखटाती है,
यह सर पटकती,
शोर करती है
और घर की खोखली कमज़ोरियाँ
इसके समर्थन में नारे लगाती हैं,
झण्डे उठाती है;
कुआँरी
माँ के पाप जैसे ये नंगे अभाव
जिनको हमने
अपनी लाज से ढाँपा,
बदनाम हो-हो कर दुलारा,
जिन्दगी जीना सिखाया
आज से बुझदिल
हमारी आस्थाओं को छलने लगे हैं
कोहेनूर से ईमान को
नीलाम करने पर तुले हैं
और इनकी
सर्पिणी-सी चाह
दिन-ब-दिन
बेसब्र होती जा रही है;
कम उमर वाले
मौनी ऋषि से
खूबसूरत से आँसू हमारे
जिन्हें मन के
तपोवन में रहना सिखाया
दूर आँखों से रहना बताया
आज वे ही
पीर की मनुहार गाने जा रहे हैं
बिखरे जा रहे हैं
और यह पीड़ा
जिसे सती समझे थे हम
दिन-ब-दिन
निर्लज्ज होती जा रही है !
दिन-ब-दिन
यह भुख
बत्तमीज़ होती जा रही है !
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ओ,
हम से ही गर्भस्थ पिण्डी ! भ्रूणो !
जन्म लिया चाहने वाले हम-रूपो !
ठहरो !
अभी न जन्मो,
सारी धरती दुखी हुई है नासूरों से,
कुन्हा नासृरों से
और हमारा
पांव-पांव भीगा उठता है
रिस-रिस बढ़ती हुई पीप से
दाग़ी हैं दीवार, छतें, कंगूरे आँगन
इसलिये सुनो,
तुम अभीन जन्मो !
हम-
हवा नहीं बदबू पीते हैं,
रोटी नहीं भरम खाते हैं,
और अतीत की राख लपेटा करते हैं
नंगे शीर पर,
खीज के क्षय रोग ग्रसे हम लोग-
खाँसते हैं,
फेंकतें हैं खून
-कि कहीं कुछ सुर्ख तो दिखे,
वर्षों से काल पड़े सूरज पर
कुछ लाल छींटे तो पढ़ें,
तुम अभी न जन्मो,
सुनो, अनागत के ओ, भोक्ताओं !
जब हमारी
आखिरी धड़कन
जंग खाकर जड़ गए
आकाश को दरास्ती हुई टूटे
हमारी
आखिरी आवाज़
गूंगी दिशाओं को
सौ-सौ स्वरों की
गूँज जब देती हुई डूबे,
उस घड़ी तुम,
हमारे ही ताज़ा
बहुत ताज़ा संस्करण होकर निकलना,
ओ,
अभी गर्भस्थ पिण्डी !
तुम उस सुबह जनमना !
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हमारे भ्रूण पर
ज़हर की झिल्लिया चढ़ी थी,
जन्मे हम
सुलगते पिण्ड जैसे
दुख गई ममता जिसे छूकर
सूखे हुए तालाब सी
दरारें खाकर फट गयी थी
दूध आँचल का
हमसे भरी-भरी वह गोद झलसी
बिना धुँआ उठाए
काठवाले कोयले जैसी जली
जल-जल
राख जैसी हो गई वह एक दिन
मगर जीते रहे हम,
और अब जी रहे हैं
कड़वी सांस फूँकें जा रहे हैं
आग सी आवाज़ फेंके जा रहे हैं
क्या करें हम
जो हमारे सांस लेने से
गुलाबों पर ठण्डी,
उनींदी ओस का
दम घुटता है; घुटे
हमारी फूली-तनी
नसों को देख कर
इन खून खोरों की
बीरादरी से झांकती आँखे-
चौंधियाती हैं, चुँधे
हमेशा के लिए मुझे
हमारी फैलती परछाइयों से
सपनों के सौदागरों पर
खतरे की उदासी तिरती है, सिरे
हमारी भारी आहटें सुनकर
वैसाखियों पर चल रहे
कमजोर दिल की धड़कन
टूटती हैख् टूट जाए;
हम क्या करें?
हम अनागत फसलों के पहलुए
जो खुरदरी
कूबड़ ढहाने का
दम-खम लिए पैदा हुए हैं,
लो ! हमारी छटपटाहट की गवाही
हमारे भ्रूण पर
जहर की झिल्लियाँ चढ़ी थी !
------------------


ओ, आदमी को संज्ञा से
ज्ञापित शरीरों !
तुम नपुंसक सपनों को जनम दो,
सुखो ईख जैसी आस्थाओं से,
रस खींचने
तुम दाँत पीसो, हड्डियों को चिटखिटाओ
ओ, किसी शमशान के
पहरुए सी ठठरियो !
नम्रताएँ ढाँपने तुम कुंठाएँ बटोरो,
थेगड़े लगे आदर्श ओढो,
बूढे़ घड़ैयो ! तुम नये के नाप पर
कुबड़े घड़ो, घुरे उठाओ,
ओ, उजाले से डरे हुए
अँधेरे पर आसक्त श्रोगो !
अधे बने भटका करो,
अपाहिज जिन्दगी भी जीने के लिए तुम
पौरुषहीन,
कामुकों सरीखे छटपटाओं,
सुनो, इससे तो अच्छा है
कि तुम स्वयं
अपने लिए ही
कब्र खोदा,
गड़ जाओ इसी क्षण
आत्महल्याएँ करो,
करो विश्वास-
हमें तुम्हें विधिवत जलाएँगे
कि कलको
जन्मनेवाली पीढ़ी तुम्हारी ही तरह
बीमार न हो
ताज़ा महकती हवाओं में
तुम्हारे रोग के कोड़े कहीं चिपकें नहीं
और सुर्खियों की पहुँच के सीमान्त तक
तुम्हारा दास कोई रह न पाए;
ओ, ताड़पत्ती पोथियों के पूजको !
लो, पुन्य लूटो,
वक्त रहते ही मरो,
वचन ले लो भले हमसे
तुम अपनी लाश के सम्मान का
ओ, आदमी की संज्ञा से
ज्ञापित शरीरो !
------------------


हमारे जन्म से अधिक अच्छा
और क्या घटित होता
इस सदी में !
जन्मे हम
कि इस सदी की भोग्या माँ,
भोगी पिता के
संस्कारों की हम कब्र खोदें
अतीत की कूबड़, पठारों को तरासें
सांवली भूरी माटी बिछाएँ
ताज़ा हसरतों को बीजने
पसीना सींचने को जन्में हम;
सूखी मज्जाओं की जोड़ से बने हमलोग
जन्में इसलिए
कि जिन अँधेरों में पोषे गए हम
धूप से धोएँ उन्हें
दुर्गध पीकर
गर्म सांसें दें वातावरण को
अभावों की अटारी में जवानी भोगनेवाले हमलोग
ठंडी आँखों में गड़ें
मन के बीमार
लोगों के अमुँहे घावांे पर
नस्तर लगाएँ;
जन्में इसलिए
कि थेगड़े लगे आकाश के ऊपर
हम अपनी दृष्टि का आकाश कसदें
दिशा-भ्रम से असित दिशाओं पर
हम टाँक दें सकल्प अपने
इम सदी का
एक केवल एक उजला दिन
कि जन्में हम
अनागत सदियों का भविष्य लेकर
हमारे जन्म से अधिक अच्छा
और क्या घटित होता
इस सदी में !
------------------


यह धरती
बहुत मैली हो गई है दोस्त !
हर एक बरखा बाद
पहले से अधिक
दल-दल, ढहे और खंडहर दीखते हैं,
और पानी
खंड-खोहों में सिमट कर बदलता है स्वाद
जन्म देता
घड़ियालों, मगरमच्छों
बड़े मुँह की मछलियों को,
और फिर पानी कहाँ से लाए आदमी
यह धरती धोने के लिए
जो पहले से अधिक मैली
बहुत मैली हो गई है दोस्त !
अनेको बार
यह धरती धोई गई है खून से
सूख कर गीली सुर्खियाँ
स्याद पतैं बन गई हैं,
फट गई दरारों में उगी है घास,
यह धरती पहले से अधिक भद्दी
बहुत भद्दी हो गई है दोस्त !
दिन-ब-दिन
बढ़ती हुई यह गन्दगी
धोई नहीं गई शायद कभी भी आग से
इसे हम
आग से धाएँ, हमारे दोस्त !
इस तरह साँसें कि-
लपटें फैलती आएँ दिशाओं में,
हम ईधन झांकते जाएँ
और फिर
पेशानियों से बरस जाए
एक बरखा
भीगी-भीगी, सांवली सपाट माटी
मुट्ठियों में भरे,
खूबसूरत कोंपलों को
फूटते देखें हमारी हसरतें
और इन हसरतों की ही खातिर,
आ यह धरती
आग से धोएँ हमारे दोस्त
जो पहले से अधिक मैंली
बहुत मैली हो गई है !
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दोस्त !
क्रूस पर अब भी चढ़ाए जाते हैं मसीहा !
बूढ़ी सांझ के पठारां पर जो गाड़ते हैं
जिन्दगी के धर्म की ताज़ा लिखी तख्ती
समय की रगड़ से फीकी पड़ी
अनुभव की ऋचाओं को जो अस्वीकारते हैं
गोलियां के शोर से
खामोश की जाती हैं अब भी ऐसी धड़कनें,
जिन्दा जला दिए जाते हैं अब भी
संकल्प के गेलिलियों !
बदबू के पहाड़ों की तराई में
आवाज़ की छैनी लगाए चोटते हैं जो जड़ों को,
साथ लेते हैं इकाइयों को कि-
गूँज और ऊँचे तक उठें
चिनगारियाँ चिटखती ही रहें
और आग लग जाए तो रंग देखें;
वे जो मुक्ति की संज्ञा लिए हर बोझ ढोते हैं,
बहुत पीछे से जुड़ी बेड़ियाँ पहने हुए भी
वे जो काई दूर छूने को घिसटते हैं
और अपने ही लिए जन्में,
पराई कोख में पलते
अनागत के लिए स्वराते हैं,
दागे जाते हैं अब भी
ऐसे मन खीज की सलाखों से
जहर दे दिया जाता है अब भी
सत्य के सुकरात को !
दोस्त,
क्रूस पर अब भी चढ़ाए जाते हैं मसीहा !
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